आज फिर रिश्तों की एक ईट और ढह गई,
वक्त मुट्ठी में बंद रेत की तरह निकल गई।
वर्षों से गांव जाने की योजना बना रही थी,
आज कल परसो में बरसों बीता रही थी।
और आज बिना योजना ही झट से पहुंच गई,
पर यह क्या! मौसी के शरीर से तो सांसे ही निकल गई।
आज बईठ रे बचिया,
कहने वाला वहां कोई नहीं था।
जल्दी प्रणाम करस निकलींजा,
बस यही शब्द सही था।
न जाने किस बात की जल्दी थी,
पता नहीं कहां जाना था।
जी भर के उसे देख भी नहीं पाई ,
उस लोक से उसे कहां आना था।
अब तो बस, मिट्टी का चोला,
मिट्टी में मिल जाएगा ,
चोले में बसने वाला नफ़स,
वायु के साथ बड़ी वेग से उड़ जाएगा।
यह तो सर्व विदित है कि,
जिंदगी का अंतिम पड़ाव मौत ही है होता।
पर जिंदगी को एक बार मिलने का,
मौका तो दिया होता।
हम आकर कुछ रातें,
संग गुजारना चाहते थे ।
तेरे आशीर्वचनों से ,
अपने दामन को भरना चाहते थे।
पर यह जिंदगी की आपा-धापी ने,
हसरत अधूरी कर दिया ।
चाह कर भी चाह पूरी न कर सकी,
यह मजबूरी कर दिया।
अब तो योजना से डर लगने लगा है,
बस लगता है जो दिल में आए तुरंत कर डालो।
पता नहीं जीवन में वह कल आए ना आए,
इसलिए किसी बात को कल पर मत टालो।
साधना शाही, वाराणसी
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