आज मन बेचैन है
इसको न तनिक चैन है
लंबी रात कट नहीं रही
नींद है कि लग नहीं रही।
आज लगता है मन बड़ा अशांत है
तो कभी ना जाने क्यों यह
क्लांत है
इसे समझाना चाहती हूं
हार मत तू
हंस के जिंदगी को जी
कर भार मत तू
पर मन है कि मायूसी का पंख लगाकर
विषाद की गली में
हंसी तलाश रहा है
मूढ़ है यह बबूल के वृक्ष पर क्या कभी पलाश रहा है
थक गई आंखें
पर नींद कोसों दूर है
शायद वो भी आज
हुई मगरूर है
तभी मन ने आवाज लगाई सोए नहीं अब तक भी
तभी मैंने कहा
नहीं ,आज आंखों की नींद
कहीं सफर कर रही है
न जाने वो किस पर ज़फ़र कर रही है
तभी
प्रत्यूष की आभाआ गई
बीत गई रैन
फिर भी न जाने क्यों
आज मन है बेचैन।
साधना शाही ,वाराणसी