उड़ गया हंस
घेर घार के बैठ ले बंदे,
तू घेरे रह जाएगा ।
प्रभु का बुलावा जब आएगा,
घेरना फिर तू पाएगा।
हाड़ मांस का बना था चोला,
कल तक सजा जो रहता था।
प्राण पखेरू जैसे उड़ गए,
अब झोला सा लगता था।
कल तक रिश्ते गुथे हुए थे,
अब सारे हैं टूट गए।
धन- दौलत सोना व चांदी,
सब ही तो हैं छूट गए।
बेटा -बहू, बेटी – दमाद सब,
आगे -पीछे घेरे थे।
उड़ा हंस कोई रोक न पाया,
बैकुंठ धाम पग फेरे थे।
घर द्वार को छोड़ूं कैसे,
कल तक माया घेरी थी
उड़ा हंस, माया भी उड़ गई,
अब ना कोई देरी थी।
गठरी मोटरी बांध के रखे ,
बेटा -बेटी को देना है ।
आज तो हम खुद ही गठरी
बन गए,
अब ना कुछ लेना-देना है।
साधना शाही ,वाराणसी