
यह कविता एक भक्त की उसके परम पूज्य मालिक से गुफ़्तगू है। कैसा लगता है जब दुनियादारी के पन्नों को पलट कर थक जाओ? जब दुनियादारी का ज्ञान लेते हुए थक जाओ!
जब दुनिया के खुशी में खुद को झोंक दो फिर भी दुनिया से गालियाँ ही पाओ।
ऐ मालिक!
हर चेहरे पर नकाब है,
हर दिल में छिपा इक घाव है।
अब आंखें मेल नहीं खाती हैं लफ़्ज़ों से,
इन आंखों में ही छिपा हर राज़ है।
ज़रा सी नासमझ हूं मैं,
भरोसा ज़रा जल्दी कर लेती हूं।
लफ़्ज़ों के खंजर ज़रा जल्दी चुभते हैं मुझे,
शायद इस लिए ही अब ज्यादा गुफ्तगू नही करती हूं।
ऐ मालिक! आंखें पढ़ने का हुनर सीखा दे मुझे,
मुस्कुराते चेहरों वाले फरेबियों की पहचान बतादे मुझे।
सत्य का मार्ग ना छूटे कभी मुझसे,
यही वरदान तू सदा दे मुझे।
जज्बाती हूं मैं! अश्क जल्दी बह जाते हैं,
मेरे ही अश्कों का ज़हर बनाकर लोग मुझे पिलाते हैं।
जज्बातों को अब दबाना सीखा दे मालिक!
दिल को अब ज़रा पत्थर बना दे मालिक।
झूठे, दगाबाज और फरेबी भी न दुखा सकें दिल को मेरे,
इतना मजबूत मुझे तू बना दे मेरे मालिक।
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