कहा जाता है पूत कपूत भले ही हो किंतु माता कुमाता नहीं होती है ।किंतु आज के कलयुगी दुनिया में कई बार इसके विपरीत भी होता है। कई बार मां – बाप का प्यार-दुलार, ममता, धन- संपदा, शानो -शौकत का गुलाम हो जाता है। ऐसे में उनका सारा प्यार -दुलार उस बच्चे के साथ हो जाता है जिसके पास हरे -हरे नोटों की गड्डियाॅं और सोने चांदी की चमक
है । वहीं दूसरा बच्चा जिसके अंदर मान – मर्यादा का एहसास कूट – कूट कर भरा होता है ,वह मां-बाप के प्यार- दुलार से महरूम रह जाता है। मां-बाप उससे रिश्ता रखने में शर्म महसूस करते हैं ।तो आज की मेरी कविता कुछ ऐसे ही जज्बातों से भरी हुई है जिसका शीर्षक है –
कलयुगी की मां- बाप
ज़िंदगी की राह में कुछ अपने छूट जाते हैं ,
बेवजह ही ना जाने क्यों हमसे रूठ जाते हैं।
उनके प्यार व आशीष को बस राह तकते रह गए,
जज्बातों से खेले वो सपने थे सारे बह गए।
दिल कभी मायूस हो पूछता था क्यों,
तानों- बानों का गाज आकर गिरता था त्यों।
रिश्ते नहीं वहाॅं धन – संपदा सॅंजोया जाता है,
जिनके पास यह नहीं है उन्हें झट खोया जाता है।
शिद्दत से उनको चाहती थी बदले में नफ़रत पाई हूं,
देती थी मान- मर्यादा और उपेक्षित होके आई हूॅं।
आशीष की इच्छा से जब चरण – स्पर्श करती थी,
वो पग खींच लेते थे और मैं आहें भरती थी।
माता-पिता सा प्यार की मैं चाह रखती थी,
वो खुश रहें मुझे प्यार दें इस जतन से न थकती थी।
तिरस्कार व उपेक्षा सदा हिस्से में आता था,
हर रोज सुनने में एक नया किस्से में आता था।
रौंदकर मेरे अरमानों को खुशी से जी रहे हैं वो,
धन-संपदा का दंभ कर अकेलापन पी रहे हैं वो।
महरूमियत प्यार- दुलार की दिल में कसक जगाती है,
जतन जितना भी कर लूं याद भरसक न आती है।
प्रश्न अंतर्मन में अनेकों बार उठता है,
किस गुनाह की सज़ा है ये अपना न झुकता है।
चाहा उन्हें, पूजा उन्हें उनका इंतज़ार बहुत की,
बन जाएं मात-पिता मेरे ऐसा व्यवहार बहुत की।
सब कोशिशें बेकार थीं वहाॅं सोने- चाॅंदी की इज़्ज़त थी,
एहसास व भावना वहाॅं होती बेइज़्ज़त थी।
मन बेचैन रहता है दिल आहें जब भरता है,
है इश का बस आसरा उन्हीं से अर्ज करता है।
साधना शाही, वाराणसी