इस जहाॅं में जब हम अपनी माॅं के गर्भ से अकेले आए हैं, फि़र हम भला क्यों जीवन भर किसी का इंतजार करते हैं ।जिस प्रकार चाॅंद, सूरज अकेले ही संपूर्ण जहान को शीतलता ,उष्णता, प्रकाश व ऊर्जा प्रदान करते हैं। उसी प्रकार जो इस जहान में संघर्षों का हॅंसते हुए जिंदादिली से सामना किया वही स्वर्णिम इतिहास बनाने का स्वाद चखा, भीड़ में चलने वाला तो कीड़ों
मकोड़ों- सा जीवन जीकर अंधेरी काली रात में अपने वजूद को खोकर कहीं विलुप्त हो गया । इसी तरह के बिंब योजना का दर्शन कराएगी आज की हमारी नई कविता अकेले
जहाॅं में थे जब हम आए अकेले,
तो क्यों हम बेवज़ह के जंजालों को झेलें।
दुखी तुम ना होना यदि हो अकेले
जिधर भी तुम देखो
फ़रेबों के मेले
समृद्धि के संग में होंगे बहु चेले
जाते ही इसके नहीं कोई झेले
फिर तुम भला क्यों न चलते अकेले
जहाॅं में थे जब हम आए अकेले,
तो क्यों हम बेवजह के जंजालों को सकेलें।
संघर्षों में मानव रहा है अकेले
मिलते सफलता रिश्तों के ठेलम-ठेले
जग जिस पर हॅंसा वो बना कोहिनूर के ढेले
टूटे व सॅंभले खुद ही खुद को सकेले
उपेक्षित हुआ जो अप्रतिम उदाहरण है देले
जो झूला खुशी से बोए ज़हरीले बेलें
बिखरा वो खुद है जहाॅं बिखरा के खेले
खुश है वही जो जिंदगी संग रेले
जहाॅं में थे जब हम आए अकेले,
तो क्यों हम बेवज़ह के जंजालों को सकेलें।
साधना शाही, वाराणसी