जिउतिया या जीवित्पुत्रिका का व्रत आश्विन मास कृष्ण पक्ष सप्तमी से आरंभ होकर नवमी तिथि तक 3 दिनों तक चलता है। सप्तमी तिथि को प्रातः काल उठकर स्नान तथा पूजा पाठ करके पहले कोई मिष्ठान ग्रहण कर उसके पश्चात सात्विक भोजन ग्रहण किया जाता है। सप्तमी की रात को कुछ क्षेत्रों में नोनी का साग और मड़ुआ की रोटी तथा कुछ क्षेत्रों में सतपुतिया की सब्जी- रोटी या पूड़ी और बेसन बड़ी खाकर इस व्रत को किया जाता है। सतपुतिया की उपलब्धि न होने पर उसकी जगह तोरई का भी प्रयोग किया जाता है। इस व्रत से जुड़ी अनेक अनेक कथाएं हैं ।
जिउतिया व्रत की पौराणिक कथा
गन्धर्वराज जीमूतवाहन बड़े धर्मात्मा और त्यागी पुरुष थे। युवाकाल में ही राजपाट छोड़कर वन में पिता की सेवा करने चले गए थे। एक दिन भ्रमण करते हुए उन्हें नागमाता मिलीं, जब जीमूतवाहन ने उनके विलाप करने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि वो नागवंश गरुड़ से काफ़ी परेशान है। वंश की रक्षा करने के लिए नागवंश ने गरुड़ से समझौता किया है कि वे प्रतिदिन उसे एक नाग खाने के लिए देंगे और इसके बदले वो हमारा सामूहिक शिकार नहीं करेगा। इस प्रक्रिया में आज उसके पुत्र को सामने जाना है। नागमाता की पूरी बात सुनकर जीमूतवाहन ने उन्हें वचन दिया कि वे उनके पुत्र को कुछ नहीं होने देंगे और उसकी जगह कपड़े में लिपटकर खुद गरुड़ के सामने उस शिला पर लेट जाएंगे, जहां से गरुड़ अपना आहार उठाता है और उन्होंने ऐसा ही किया। गरुड़ ने जीमूतवाहन को अपने पंजों में दबाकर पहाड़ की तरफ उड़ चला।जब गरुड़ ने देखा कि हमेशा की तरह नाग चिल्लाने और रोने की जगह शांत है, तो उसने कपड़ा हटाकर जीमूतवाहन को पाया। जीमूतवाहन ने सारी कहानी गरुड़ को बता दी, जिसके बाद उसने जीमूतवाहन को छोड़ दिया और नागों को ना खाने का भी वचन दिया।

दूसरी पौराणिक कथा

पुराणों के अनुसार महाभारत के युद्ध में अपने पिता की मौत के बाद अश्वत्थामा बहुत नाराज़ हो गया था। अश्वत्थामा के हृदय में बदले की भावना भड़क रही थी। इसी के चलते वह पांडवों के शिविर में घुस गया। शिविर के अंदर पांच लोग सो रहे थे। अश्वत्थामा ने उन्हें पांडव समझकर मार डाला। वे सभी द्रोपदी की पांच संतानें थीं। फिर अर्जुन ने अश्वत्थामा को बंदी बनाकर उसकी दिव्य मणि छीन ली। अश्वत्थामा ने बदला लेने के लिए अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में पल रहे बच्चे को गर्भ को नष्ट कर दिया। ऐसे में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सभी पुण्यों का फल उत्तरा की अजन्मी संतान को देकर उसको गर्भ में फिर से जीवित कर दिया। गर्भ में मरकर जीवित होने के कारण उस बच्चे का नाम जीवित्पुत्रिका पड़ा। तब से ही संतान की लंबी उम्र और मंगल के लिए जितिया का व्रत किया जाने लगा।

By Sadhana Shahi

A teacher by profession and a hindi poet by heart! Passionate about teaching and expressing through pen and words.

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