आज आधुनिकऔर भौतिकवादी युग में इंसान इतना आगे बढ़ गया है कि वह एकाकी जीवन पसंद करने लगा है। आज का इंसान घर ,मकान, समान सब कुछ संजोकर रख लेता है किंतु रिश्तो को सजोना उसके लिए मुश्किल होता है। जबकि रिश्ते वो संजीवनी होते हैं जो हमें जीना और हंसना सिखाते हैं ।आज की मेरी कविता कुछ ऐसे ही हाव- भाव से ओतप्रोत है जिसका शीर्षक है –
जीवन और घर
यह जीवन और घर सदा,
अपनों से खुशहाल।
बिन अपनों के ये तो लगते,
जैसे कोई कंगाल।
अपनों बिन जीवन जिया न जाए,
ऐसा हलाहल पिया न जाए।
देवदार वृक्ष सम अपने लगते,
साथ हों ये यदि कष्ट सब भगते।
अपनों सा ही घर भी प्यारा,
इस बिन सूना जहान है सारा।
ईंटे गारे से नहीं यह जुड़ता,
दिल के रिश्तों से यह बनता।
अपने सारे साथ में रहते,
एक दुखी तो सारे रोते।
जिस्म अलग पर जान एक है,
घर वालों की पहचान एक है।
महल दुमहला की ना इच्छा,
हंसते घर की ईश से भिक्षा।
कभी किसी का घर ना टूटे,
अपनों से अपने ना रूठे।
सांसें गात में चलती रहतीं,
मृतप्राय यह फिर भी लगता।
घर में साजो समान भले हों,
अपनों बिन यह नश्वर लगता।
प्यार विश्वास मजबूती देते,
जीने की राह बखूबी देते।
जिससे घर में रौनक आती,
मकान जो था उसे घर है बनाती।
साधना शाही, वाराणसी