सुख हो या दुख हो जीवन में,
ना कुछ भी है स्थिर।
मानव तू ना हो शोकाकुल,
बदलेंगे दोनों ही फिर।

क्यों लेता फिर है तनाव तू,
सब कुछ होगा परिवर्तित।
कर्म सदा तू कर निष्काम हो,
वर होंगे पल्लवित -पुष्पित।

गीता है यह पाठ पढ़ाता,
कर्म अधिकार हमें हैं ।
फल की चिंता करने वाले,
नाना पीरों में रहे हैं।

नाना भांति की बातें चलती,
मन- मस्तिष्क में हमारे।
यह है हमें अस्वस्थ बनाता,
कृषकाय करे काया रे।

आज का जीवन भाग-दौड़ का,
मन व चित्त रहे सदा अशांत,
इसको शांत जो हम सब कर लें,
जीवन में ना हो कोई क्लांत।

नवजात शिशु किशोर हो जाता,
किशोर है होता प्रौढ़।
प्रौढ़जीवन जब पूर्ण हो जाता,
देता गात को छोड़।

भूमि के अंदर बीज दबा था,
अब अंकुरित हो आया।
कुछ दिन मांस और बीता तो,
बन पौधा लहलहाया।

संपूर्ण धरा पर नज़र घुमा लो,
कुछ भी ना है स्थिर।
फिर क्यों इतने विह्वल हो तुम,
जब जग में सब कुछ है अस्थिर।

साधना शाही, वाराणसी

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By Sadhana Shahi

A teacher by profession and a hindi poet by heart! Passionate about teaching and expressing through pen and words.

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