प्रकृति प्रत्येक प्राणी के लिए परिचारिका स्वरूप है ।यदि हम इसे ईश्वर का दूसरा रूप कहें तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह प्रतिपल अपने रूप और सौंदर्य को परिवर्ति कर ईश्वर की सत्ता को साकार करती है। अतः हमें प्रकृति के प्रति एकात्मता और आदरभाव रखना चाहिए। प्रकृति हमारे लिए जीवनदायिनी है ।इसके बिना जीवन असंभव है। ब्रह्माण्ड में पृथ्वी के अलावा और भी कई ग्रह हैं, लेकिन प्रकृति के बिना वहाॅं जीवन संभव नहीं है। पृथ्वी पर सुखी जीवन व्यतीत करने के लिए भगवान ने हमें सबसे अनमोल और कीमती उपहार प्रकृति के रूप में प्रदान दिया है। जिसका दृश्य देखने मात्र से ही मनुष्य के दिन भर की सारी थकान दूर हो जाती है। हम सभी के लिए प्रकृति ईश्वर का दिया हुआ अनुपम वरदान है। हम ब्रह्माण्ड के सबसे सुंदरतम ग्रह पृथ्वी पर निवास करते हैं। हमारी इस धरती की सुंदरता ‘प्रकृति’ की वज़ह से है। जैसे एक बच्चा जन्म लेता और अपनी माँ की गोद और उसके आँचल के साये में पलकर बड़ा होता है वैसे ही मानव इस धरती पर ‘प्रकृति’ की गोद में और उसके आँचल के साये में पलकर बड़ा होता है। इस कारण ‘प्रकृति’ हमारे लिये ‘माँ’ स्वरूप ही है। प्रकृति निःस्वार्थ तथा बिना भेदभाव के हमें अपना सब कुछ दे देती है।प्रकृति हमें वो सब देती है जो एक ‘माँ’ अपने बच्चे को देती है। जिस प्रकार ‘माँ’ बिना किसी स्वार्थ के अपने बच्चे पर अपना सब कुछ न्योछावर कर देती है और बदले में कुछ भी नहीं
माॅंगती । उसी प्रकार प्रकृति भी सदा हमें देती है और बदले में हमसे कभी भी कुछ भी नहीं लेती है। किंतु प्रकृति के 12 महीने हमारे लिए लाभदायक नहीं होते हैं इन बारहो महीने में भादो का महीना हमारे लिए रोग व्याधियाॅं लेकर आता है। कुछ ऐसे ही भाव से ओत-प्रोत है आज की हमारी कविता –
प्रकृति के विविध रूप
प्रकृति हैअनुपम वरदान,
जीने की यह कला सिखाती।
धन- वैभव की खातिर मानव
ना रहने दे रहा इसे पुलकित।
वन ,नदियाॅं, पर्वत और
सागर,
सदा ही देते कुछ ना लेते।
आज का मानव बड़ा आतंकी,
प्रकृति माॅं का हैं दोहन करते।
ब्रह्मांड में ग्रह हैं जितने,
उनमें प्रकृति सबसे प्यारी।
विविध रूप – रंग है इसके,
शोभा इसकी अवर्णनकारी।
मूढ़ कर रहे इसका दोहन,
सुंदरता को ले रहे सोख।
सूरसा -सा बढ़ रही लालसा,
बंजर कर रहे माॅं की कोख।
बारह माह का बारह रूप ,
प्रकृति बदले छाॅंव व धूप।
इसकी महिमा के क्या कहने,
धन-धान्य के गहने पहने।
चैत्र माह में रची गई सृष्टि,
प्रकृति श्रृंगार, सृजन है करती।
लाल, पीले, नारंगी फूल,
वृक्ष नवांकुर से भरपूर।
कोयल कूॅंके आम की डाली,
चहुॅं पुकार करती है पिपहरि।
तपिश का होता हैआरंभ ,
समृद्ध धरा ना करती दंभ।
जेष्ठ माह में अति व्याकुलता,
नदी ,तालाब सब निर्जन होता।
खेत -खलिहान हैं आग उगलते,
त्राहि-त्राहि चहुॅं ओर है मचता।
माह आषाढ़ गगन घन गरजे,
वर्षा ऋतु आने को तरसे।
मौसम में बदलाव है होता,
संक्रमण दुख ,विपदा को बोता।
टर्र- टर्र टर्राते दादुर,
झन-झन झिल्ली है बजती।
मोर ,चातक- म्याऊं , पीहुॅं- करते।
वर्षा के स्वर मन को भाते।
दामिनी दमके उमड़- घूमड़ के,
नन्हीं-नन्हीं मेहा बरसे।
शीतल पवन है मन को मोहे,
इंद्रधनुष के झूले लगते।
सावन माह है अति मन-भावन,
प्रणयातुर शत – कीट सुख करते।
रिमझिम- रिमझिम बूॅंदे आती,
ग्रीष्म तपिश को मानव तजते।
मोती -सी सावन की बूॅंदे,
फैला देतीं हैं हरियाली।
भादो माह की धूप- छाॅंव ने,
हरियाली को नष्ट कर डालीं।
धूप की तीक्ष्णता सही ना जाती,
रोग- व्याधियाॅं पाॅंव फैलातीं।
घर-घर दुखी है मानव होता,
तीस दिनों में बीत यह जाती।
क्वार महीना अति- मनभावन,
धरा पर होते हैं परिवर्तन।
प्रात चमकीली, सुरमई, सिंदुरी,
सजी धरा ज्यूॅं सुंदरता पहिरी।
अति उत्तम कार्तिक का माह,
ठंड पसारे है अब पाॅंव।
फसलों पर है ओस चमकती,
अनुपम छटा चहुॅं और बिखरती।
अगहन की ठंड है अति फलदाई,
फल सब्जियों की पैदावार बढ़ाई।
गेहूॅं- चना की उपज बढ़ाए,
अगहन में वर्षा जब आए।
माघ महीना अब है आया,
रातें घटती दिन बढ़ जाया।
इस माह की धूप अति प्यारी,
हर जन को यह लगती न्यारी।
हर गाॅंव व गली -गली,
फागुन की है बयार चली।
मौसम ने अंगड़ाई ली,
प्रकृति सुंदरता ना अंटे कहीं।
असीम अमूल्य खुशियों के रंग,
सबको देती ना होती तंग।
निश- दिन इसकी छवि है निराली,
दृष्टि जहाॅं तक हम ने डाली।
साधना शाही, वाराणसी