मिट्टी से सोना उपजाए,
यह भारत की रीढ़ कहाए।
ग्रीष्म तपिश व शिशिर की किकुड़न,
हंसते -हंसते सह ले जाए।

त्याग तपस्या का नाम है दूजा,
कर्म से बढ़कर कोई न पूजा।
भारत की आत्मा कहलाए,
खाद्यान्नों से घर भर जाए।

संस्कृति -सभ्यता सहेज के रखता,
कृषि की भक्ति नित-दिन करता ।
प्रथम प्रहर का सजग सा प्रहरी ,
वनस्थली में जीवन जीता।

विसंगतियां जीवन का नाम है दूजा ,
करता शांत वो सबकी छुधा।
ऐसा कर्मनिष्ठ ना कोई,
वसुधा को है मा सा पूजता।

जेठ- पूष सब एक से लगते,
कृषक कभी भी उफ़ ना करते।
परिस्थितियां विषम हो जितनी,
धैर्य से अपने दूर हैं करते।

भुजा में इनके शक्ति अपरिमित,
बंजर भू सोना उपजाए।
अमृत की वर्षा हैं करते ,
तभी तो भारत की आत्मा कहलाए।

साधना शाही वाराणसी

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By Sadhana Shahi

A teacher by profession and a hindi poet by heart! Passionate about teaching and expressing through pen and words.

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