आज हमारा देश बहुत विकास कर लिया है। हम चांँद- तारों तक पहुंँच गए हैं, देखने में हम पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं। किंतु, आज भी समाज का एक बहुत बड़ा तबका विधवाओं को बड़े ही हेय दृष्टि से देखता है। उन्हें कुलच्छनी, अपसकुनि मनहूस आदि अनेकानेक नामों से संबोधित करता है। जबकि विधवा होने में उस स्त्री का कोई दोष नहीं होता । अतः आज आवश्यकता है हमें, अपने विचारों को विस्तार देने की, समाज में नवजागरण लाने की, ताकि विधवा भी अपनी ज़िंदगी को जी सके, ना कि उसे बोझ की तरह ठोए।आज की मेरी कविता एक ऐसे ही वीरवधू को समर्पित है, जिसका पति देश की रक्षा करते हुए शहीद हो गया है और उसे उसकी समिति की कुछ औरतें बड़े ही हेय दृष्टि से देखती हैं। किंतु उसी समिति की एक आंटी जब कार्यक्रम का शुभारंभ इस इस वीरवधू के हाथों से फीता कटवा कर करवाती हैं, और कहती हैं कि मुझे इस पूरी समिति में इनसे बड़ा कोई भी व्यक्ति नहीं दिखाई दिया, क्योंकि यहांँ उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति स्वयं के लिए जीता है जबकि इनका पति देश व समाज की रक्षा के लिए, हमें सुखी रखने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दिये। अतः इस कार्यक्रम का शुभारंभ यही करेंगी उनके मुखारविंदु से इस तरह की बात सुनकर सबकी आंँखें फटी की फटी रह जाती हैं, और सबको अपनी गलती का भान होता है। आज की मेरी कविता का शीर्षक है-
एक अनोखी तीज
तीज के उत्सव की तैयारी,
पंडाल सजा रहे नर और नारी।
महिलाएंँ सब सजने लगी थीं,
हाथ में मेंहदी रचने लगी थी।
उसी ठौर एक विधवा नारी,
आतंक ने लूटा दुनिया सारी।
पांँच वर्ष का एक संतान,
पिता का प्यार न पाया जान।
वृद्ध मात-पिता भी उसके संग थे,
उसके संग जो लड़ रहे जंग थे।
दुख से वो बाहर आने लगी थी,
थोड़ा यहांँ-वहाँ जाने लगी थी।
पति का सपना जो था अधूरा,
करना था अब उसको पूरा।
पूरा करने का ले ली प्रण,
लड़ना होगा अब उसको रण।
मात-पिता ने देखा शहादत,
पर रोने की ना थी आदत।
सेना में था बहु को जाना,
अब है आंँसू नहीं बहाना।
हौसले को बुलंद है करना,
बाधाओं से ना है डरना।
दिन ढल गया ,आ गई शाम ,
युवतियाँ आने लगीं अविराम।
शहीद की विधवा आने लगी थी,
कुछ के नज़रें खाने लगी थीं।
कुछ देख दूरी थीं बनाई ,
हाय!यह विधवा पास क्यों आई ।
मनहूस की पड़े न छाया
जिसने अपने पति को खाया।
मोना उसकी अति प्रिय मीत,
देख उसे हो गई भयभीत।
पर आंटी ने रूढ़िवादिता तोड़ा,
समाज को एक नई दिशा में मोड़ा।
समारंभ विधवा से कराया,
सबको एक नया पाठ पढ़ाया।
इससे बड़ा यहांँ ना कोई,
हमारी खा़तिर यह सब खोई।
इसे विधवा कह,न करो अपमान,
इससे ही हम सब की शान।
शहीद कभी भी मरा न करता,
वो तो अमरता को है धरता।
देव मूर्ति ने फीता काटा ,
चहुँओर पसरा सन्नाटा।
सास- ससुर को की वो प्रणाम,
जिसने संतति लिया था मान।
मुझे ना विधवा विचारी समझें,
लक्ष्मीबाई अवतारी समझें।
देशहित सिंदुर हुआ कुर्बान।
मैं भी दूंँगी अपनी जान।
मुझे भी आर्मी में है जाना,
अपने कुल का मान बढ़ाना।
मैं ना विधवा, मैं हूंँ जंगी,
मुझको विधवा समझें भंगी।
स्व- संतान की मात-पिता हूंँ,
सास- ससुर की मैं दुहिता हूंँ।
मांँ अंबे मुझको दें वरदान,
देश की खा़तिर मैं दूँ जान।
बन सकूँ मात-पिता का अपत्य,
मार्ग गहूँ मैं सदा ही सत्य।
पंडाल में ताली गूँजी,
सबको लगा यह सबकी पूँजी।
सबके मन का मैल धुला था,
हर व्यक्ति का चित्त खुला था।
हो रहे थे सब उस पर निहाल,
पूरा पंडाल हुआ खुशहाल।
नवजागरण आंटी ने कराया,
सबको एक नया पाठ पढ़ाया।
एक अनोखी यह थी तीज,
जिस पर कुछने सीखा तमीज।
रूढ़िवादिता अब खोया था,
खुशी से हर जन अब रोया था।l
साधना शाही, वाराणसी