यदि प्रसन्न चित्त तथा सुखी जीवन व्यतीत करना है तो, जीवन में एक लक्ष्य बनाना तथा उस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु दिन-रात अथक परिश्रम करना नितांत आवश्यक है। जो व्यक्ति इस तरह का परिश्रम करता है, सफ़लता उसी के हिस्से में आती है, और परिश्रम को देखकर भागने वाला व्यक्ति हार को गले लगा कर दुखी और अपमानित होता है। कुछ ऐसे ही हाव-भाव से ओत-प्रोत है मेरी आज की कविता-
लक्ष्य बिन जीवन है बेकार
लक्ष्य बिना जीवन को जीना,
ऐ मानव! बेकार है।
बिना लड़े मायूस हो जाना,
लड़ने से पहले हार है।
चींटी भी भोजन की खा़तिर,
कठिन परिश्रम करती है।
अपने वजन से पचास गुना अधिक,
बोझ उठा वो सकती है।
कीट-पतंगे भोजन खा़तिर,
मारे- मारे फिरते हैं।
मसले जाते, रौंदे जाते,
फिर भी ना वो डरते हैं।
तिनका- तिनका जोड़ के चिड़िया,
अपने घर को बनाती है।
तब जाकर के शाम गए वो,
फुर्सत से सो पाती है।
फिर क्यों मानव तू घबराकर,
मेहनत से कतराता है।
शानो- शौकत का जीवन चाहिए,
पर मेहनत ना भाता है।
बिन मेहनत जीने वाला,
जन में काहिल कहलाता है।
आंँखों में सपनों को लेकर,
वो जाहिल बन जाता है।
बिन मेहनत के ऐ नर! सुन लो,
कुछ भी ना तुम पाओगे।
नर्क सा जीवन तुम जीओगे,
सिर धूनोगे पछताओगे।
मंज़िल ना है सस्ती होती,
ना यूंँ ही मिल जाती है।
दिन का चैन, रात का नींद ले,
उसके बाद यह आती है।
नींद व चैन को जिसने त्यागा,
उसको मंज़िल मिलती है।
फूलों सा जीवन वह जीता,
हसरत, ना मारे -मारे फिरती है।
साधना शाही,वाराणसी
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