ना है पूजा

सामान्यतः हम किसी भी धर्म की बात करें तो पाते हैं कि पूजा एक कर्मकांडीय प्रक्रिया है। जिसे जनमानस कभी मनवांछित वरदान की प्राप्ति के लिए तो कभी आत्मिक संतोष की चाह हेतु ईश्वरीय आशीर्वाद पाने की ललक से अपनी दैनिक जीवनचर्या का अंश बना लेते हैं। ऐसे व्यक्ति का मानना है कि पूजा करने से हमारे आत्मा में सदैव पवित्रता का आभास होता रहता है और हमारे द्वारा किए गए कार्यों के परिणाम शुभ होते हैं, क्योंकि पूरी विधि- विधान से पूजा, अर्चना करने से हमें सदा के लिए ईश्वर का सानिध्य प्राप्त हो जाता है।

किंतु मेरा यह मानना है कि
क्यों न हम षोडषोपचार, पंचोपचार ,सोलहोपचार यानी सभी साधनों, युक्तियों, प्रक्रियाओं,चरणों,
कर्मकांडीय विधि से पूजा कर लें, किन्तु यदि हम अपने बड़ों का सम्मान नहीं करते ,जरूरतमंद की मदद नहीं करते, अपने पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक, राष्ट्रीय जिम्मेदारियों का वहन नहीं करते तो हमारे द्वारा की गई पूजा व्यर्थ एवं निष्फल है। कुछ ऐसे ही हाव-भाव से ओत-प्रोत है आज की मेरी कविता- ना है पूजा

ना है पूजा (कविता)

कर्मकांड और नेम धर्म को,
कहते ना हैं पूजा।
सद्आचरण को अपना लो,
इससे बड़ा न पूजा दूजा।

यज्ञ, आहुति और दीपदान,
को पूजा ना कह सकते।
मानव मात्र की कर लें सेवा,
प्रभु हैं उसको तकते।

फूल चढ़ाना सर को झुकाना,
ना पूजा कहलाता।
मात-पिता की कर लो सेवा,
जुड़ जाए प्रभु से नाता।

पान, सुपारी, ध्वजा, नारियल,
चाहे जितना चढ़ाओ।
अंतर्मन यदि दुखा दिए तो,
विफल सभी को पाओ।

धूप- दीप और कपूर की बाती,
संध्या सुबह जलाओ।
भूखे को यदि ना दिए भोजन,
सब कुछ निष्फल पाओ।

वेद, पुराण, स्मृति ग्रंथ,
कंठस्थ सभी कुछ कर लो।
पर यदि वाणी ना है मीठी,
ध्वस्त मार्ग तुम वर लो।

साधना शाही, वाराणसी

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By Sadhana Shahi

A teacher by profession and a hindi poet by heart! Passionate about teaching and expressing through pen and words.

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