संस्कृत साहित्य में बोपदेव
वह नाम है जिसे शायद ही कोई संस्कृत मर्मज्ञ न जानता हो, जिसके ज्ञान के आगे नतमस्तक न हो। संस्कृत के
प्रकांड विद्वान बोपदेव की बचपन में स्मरणशक्ति बड़ी ही कमज़ोर थी।

वे लाख परिश्रम कर लें किंतु संस्कृत के छोटे-छोटे सूत्र भी याद नहीं कर पाते थे, जिसके कारण उन्हें अपने सहपाठियों के मध्य सदैव शर्मिंदा होना पड़ता था।


उनके संगी- साथी उन्हें सदा मंद-बुद्धि, जड़ कहकर चिढ़ाते थे।


अपने संगी-साथी के इस तरह के व्यवहार से ऊबकर एक दिन वो गुरुकुल छोड़कर भाग गए। चलते-चलते जब वे थक गए और उन्हें बड़ी तेज़ की प्यास लगी,तब एक कुएँ की जगत पर पानी पीने के लिए गए। वहांँ पर पनिहारिनें पानी भर रही थीं। वो एक पनिहारिन से पानी मांँगे, उसने पानी पिलाया बोपदेव पानी पीकर संतुष्ट हो गए।


चूँकि बोपदेव लगातार दौड़ते हुए आए थे, अतः थक गए थे। और अपनी थकान मिटाने के लिए कुएँ की जगत पर बैठ गए।
अचानक उनकी नज़र कुएंँ की मुंडेर पर पड़ी। उन्होंने देखा जहांँ पनिहारिनें रस्सियों से खींचकर पानी भरती थीं, वहांँ गहरे-गहरे निशान पड़े हुए थे। इसके अतिरिक्त जहांँ पर पनिहारिनें पानी भर कर अपना मटका रखती थीं, वहांँ का पत्थर भी घिसते-घिसते गड्ढा हो गया था।


पत्थर पर पड़े निशान को देखकर वो विचार करने लगे कि यदि यह मुलायम सी रस्सी पत्थर को बार-बार घिसकर गड्ढा बना सकती है, तो क्या बार-बार अभ्यास करके,कठोर परिश्रम करके मैं संस्कृत के सूत्रों को याद नहीं कर सकता हूंँ!
फिर अपने ही अंतर्मन में विचार करने लगे,नहीं मैं कर सकता हूँ। मैं ज़रूर कर सकता हूंँ, और मैं करूंँगा‌ और एक दिन मैं बहुत बड़ा विद्वान बनकर दिखाऊंँगा।


वो मेरे मित्र, मेरे संगी-साथी जो मुझे मंद-बुद्धि कहकर चिढ़ाते हैं, वो देखेंगे कि वही मंद-बुद्धि बालक आज एक विद्वान बन गया है।


यह विचार करते हुए उन्होंने स्वयं से यह वादा किया कि, मैं आज के बाद कठोर परिश्रम करूंँगा, और एक दिन एक बहुत बड़ा विद्वान बन कर दुनिया को दिखाऊंँगा।
इस तरह का विचार कर और मन में दृढ़ संकल्प कर एक नए जोश, उमंग, उत्साह और हौसले के साथ बोपदेव उठे और वो घर जाने की वजाय गुरुकुल की ओर चल पड़े। गुरुकुल पहुंँचने के पश्चात वो अपने मित्रों की उपेक्षा की चिंता किए बिना दिन-रात कठोर परिश्रम कर अध्ययनरत हो गए।


जैसे ही वो परिश्रमरत हुए शुभ परिणाम भी शीघ्र ही दिखने लगा। उनके अंदर सकारात्मकता का संचार होते ही जो व्याकरण के सूत्र वो पूरे-पूरे दिन याद करने पर भी नहीं याद कर पाते थे, वही सूत्र अब कुछ मिनटों में ही याद होने लगे।
उनका परिश्रम रंग लाया जब वार्षिक परीक्षा के पश्चात परिणाम निकला तो वे गुरुकुल में सर्वोच्च अंक प्राप्त किए।परिणाम स्वरूप गुरुकुल में उन्हें उच्च स्थान प्राप्त हुआ।


आगे चलकर यही मंदबुद्धि कहे जाने वाले बोपदेव अपने प्रतिभा के दम पर पाणिनि के अत्यंत दुष्कर कहे जाने वाले व्याकरण को सरल रूप में परिवर्तित कर विश्व प्रसिद्ध ‘मुक्तिबोध’ नामक ग्रंथ की रचना कर डाले।
उनकी विद्वता के कारण ही कई राज दरबार में उन्हें महापंडित भी बनाया गया।


आगे चलकर वोपदेव विद्वान्, कवि, वैद्य, व्याकरणाचार्य और ग्रंथाकार रहे। इनका लिखा कविकल्पद्रुम तथा अन्य अनेक ग्रंथ प्रसिद्घ हैं।”मुक्ताफल” और “हरिलीला” नामक ग्रंथों की भी इन्होंने रचना की। हरिलीला में संपूर्ण भागवत संक्षेप में समाया है। लोगों का ऐसा मत है कि वे विदर्भ के रहने वाले थे ।वे अनेकानेक प्रकार के कइ ग्रंथों की रचना किए। उन्होंने व्याकरण, वैद्यशास्त्र, ज्योतिष, साहित्यशास्त्र और अध्यात्म पर उपयुक्त ग्रंथों का प्रणयन करके उन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दिया।


अपने जीवन काल में बोपदेव भागवत पर परमहंस प्रिया, मुक्ताफल, हरिलीला, और भागवत नामक चार भाष्यग्रंथों की रचना कर संस्कृत साहित्य में अपना अमिट स्थान बना लिए।
संस्कृत में अपनी पहचान बनाने के पश्चात बोपदेव मराठी भाष्यग्रंथ लेखन शैली का शुभारंभ कर एक नई शुरुआत किए।
इस तरह एक महामूर्ख, मंदबुद्धि, जड़ कहे जाने वाले बोपदेव अपने मेहनत, परिश्रम और हौसले के बल पर संस्कृत के एक उच्च कोटि के व्याकरणाचार्य और प्रकांड विद्वान कहलाने लगे।

सीख-सकारात्मक सोच, कठिन परिश्रम, एक नया जोश ,हमारा हौसला हर असंभव को संभव बना सकता है।

Also Read – मन बड़ा उदास है(कविता)

By Sadhana Shahi

A teacher by profession and a hindi poet by heart! Passionate about teaching and expressing through pen and words.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *