आज कृष्ण जन्माष्टमी (कान्हा) है घर-घर में श्री कृष्ण की झांँकी सजेगी ,उनकी पूजा-अर्चना करेंगे , भजन-कीर्तन करेंगे किंतु यह ध्यान रखें कि सिर्फ़ इतना करना मात्र ही हमारा उद्देश्य नहीं होना चाहिए ।वरन कृष्ण ने संपूर्ण धरा को जो समन्वय का गुण सिखाया उसे आत्मसात कर जीवन को सही मार्ग पर ले जा सके तब तो कृष्ण जन्माष्टमी मनाना सार्थक है ,अन्यथा एक थोथा प्रदर्शन से बढ़कर कुछ भी नहीं। कुछ इन्हीं भावों से ओतप्रोत है आज की मेरी कविता-
समन्वय हैं कान्हा सिखलाते
अद्वितीय व्यक्तित्व के धनी कान्हा नाम विलक्षण,
यह है ऐसा नाम जिसकी तुलना का कोई लक्षण।
लीला पुरुषोत्तम के लीला में सदा दिखे विरोधाभास,
सामान्य मानस समझ न पाता ,
वंशीधर का परिहास।
ज्ञानी -ध्यानी जिन्हें खोजते,
आजीवन ना मिलते।
व्रज भूमि में ग्वाल -बाल के,
साथ हैं विचरण करते।
जग के पालनहार हैं कान्हा,
राधा-रानी के पैर दबाते।
फिरते कुंज -निकुंज गलियों में,
ज्ञानी वेद श्रृचाओ में ढूँढ़ते।
अजन्मा हो धरा पर जन्मे ,
मृत्युंजय हो मृत्यु वरण किए।
सर्वशक्तिमान जग के रक्षक,
कंस के बंदीगृह में जन्मे।
जन्मदाता वसुदेव देवकी,
जगत न जिनका लेता नाम।
नंद -यशोदा के लाल कहाते,
जग करता उनका सम्मान।
सृष्टि के पालनहार कन्हैया,
ओखल से बंँधकर रह जाते।
द्वारिकाधीश जिन्हें जग कहता,
सुदामा के वो मित्र कहाते।
पठवे सुदामा खाली हाथ वो,
पछताते हैं मार्ग में जाते।
उनसे पूर्व पहुंँच गया वैभव,
देख सुदामा समझ न पाते।
गीता में उपदेश दिए तो,
योगीराज उन्हें जग कहता।
गोपी संग जो रास रचाए,
रसराज को कोई भूल न पाता।
विरोधी गुणों का हुआ समन्वय ,
तभी तो रस-योगी कहलाए।
ग्वाल-बाल के सखा रूप वो,
लोकनायक रुप जाना जाए।
ग्वाल -बाल संग सखा भाव है,
ब्रज गोपी से अनन्य है प्रीत।
राधा-कृष्ण उन्हें जग कहता,
जिसने जग को लिया है जीत।
शौर्य प्रतीक सुदर्शन धारे,
जिससे दुष्टों को संहारे ।
प्रीत प्रतीक वंशी को धर के,
प्रीत- माधुर्य पालनहारे।
काव्य ,संगीत, चित्रकला, नृत्य प्रणेता,
जाति ,संप्रदायों से ऊपर।
प्रियवर ना ये भारत भूमि के,
प्रीत चरित्र ये विश्व मंच पर।
विविधता, सर्वप्रियता इनमें व्याप्त है,
अंधभक्ति ना हमें सिखाते।
दो अतिरेकों में व्याप्त समन्वय,
समन्वय अपनाने वो बतलाते।
विलक्षणता गिनना ना है संभव,
जितनी लीलाधर में भरी है।
बस इतना ही जान लो भक्तों,
इनकी दृष्टि सब पर ही पड़ी है।
साधना शाही, वाराणसी
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