चिंतन उच्च हो, उच्च विचार, बस ये ही हैं सुख के सार।
जीवन में यदि उठना है तो, सतसंगत से हो दो चार।
संलग्न रहो आदर्श कार्य में, प्रफुल्लित तुम हो जाओ।
इससे बड़ी न कोई उपलब्धि,
सात्विकता का परचम फैलाओ।
लालसा को तुरंत ही त्यागो, कामना धरो न हाथ।
उदात्त बुद्धि से कार्य करो तुम,
खेल और अभिनय के साथ।
आनंद का सागर जग तब होगा, कहीं ना होगी उदासी।
हंँसी- खुशियाॅं तेरे पास बसेंगे, ना आएगी रूआँसी।
कर्म की महत्ता का न अंत है, इसे करो चितलाय।
इसीलिए इसे योग हैं कहते,
सुख की वर्षा करी जाय।
भौतिक साधन ना देंगे पूर्णता, कर्म योग इसे देगा।
सच्चाई सात्विकता को बस, अपनाने को कहेगा।
सत्कर्म में नित जो रहता,
निंद ना वो करता।
अनमोल समय को समझदार वह,
ना गरदा से भरता।
निंदा- स्तुति उसके जीवन में, चाह के आ ना पाती।
क्षण भर ना बेकार वो करता, प्रशिक्षण उसे सुहाती।
कार्य सिद्धि वो नर कर सकता, जो है गुणों को गहता।
देख- समझ कर कार्य वो करता,
ना मुश्किल में कभी रहता।
छिद्रान्वेषण, परदोष दर्शन, उस मानव में मिलते।
असद्भाव और कुविचार के, संग सदा जो रहते।
जल प्रवाह कूड़ा-करकट को, बहाके ज्यूँ ले जाता।
तस कुविचार कर्तव्य परायण हिय में, चाह के ना टिक पाता।
चित्त लगा जो काम न करते, चिंता उन्हें सताती।
आदि- व्याधियाँ करके मित्रता, उनको छोड़ न जाती।
जीवन उनको, सुख सेज है लगता, जो पल भर न गँवाते।
मान- सम्मान को अर्जित करके, इस दुनिया से जाते।
इस दुनिया के रंग मंच पर, अभिनय अच्छा करते।
उल्टे-सीधे कार्य न करते, हरदम सच्चे करते।
साधना शाही, वाराणसी