यादों की तस्वीर को,
बड़ा संँजोकर रखी हूँ।
साकार रूप वो कब लेंगी,
उस समय को बस अब तकती हूँ।
रक्षाबंधन लेकर आया सौगातें,
याद आती हैं बचपन की बातें।
आँखें जाने क्या ढूँढ़ रहीं,
जो मिल ना सकता मूढ़ रहीँ।
तस्वीर हुई अब धुँधली है।
यह वहम न रख कि उजली है।
देखती हूंँ उसे पूरी रातें,
याद आती हैं बचपन की बातें।
रक्षाबंधन का त्योहार निराला,
खुशियांँ बहनों की झोली में डाला।
दूरियांँ चाहे जितनी हों बसी,
पर चाहत ना कम कर डाला।
जीएँ प्यार के गीत को गाते
याद आती हैं बचपन की बातें।
गुज़रे पल को अब ढूँढ़ें
आँखें,
मानो कट गई हैं सारी शाखें।
जिन शाखों पर बैठ- बैठ कर,
गुथ जाते थे रिश्ते- नाते।
गुज़रे पल वो बड़ा सताते,
याद आती हैं बचपन की बातें।
जीवन सबका हो गया सूना,
धन- संपत्ति भले हो दूना।
जीवन हो गया है एकाकी,
सारे रिश्ते बने फ़िराकी।
इत-उत देखें दे आवाज़ें,
याद आती हैं बचपन की बातें।
ना कोई देता है आवाज़,
दीदी बोल न करता बात।
ढूंँढ़ रहे नैना हर पल,
शायद भाई आए चल।
धूमिल रिश्तों को संग साजे,
याद आती हैं बचपन की बातें।
साधना शाही, वाराणसी
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