देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। लेकिन इन चुनावी प्रक्रिया के बीच कर्नाटक में उठा हिजाब विवाद से एक बार फिर, धार्मिक एंगल आता दिख रहा है। एक ओर जहां कुछ लोग हिजाब को महिलाओं के लिए रुकावट बता रहें हैं |
वहीं दूसरी ओर हिजाब पर पाबंदी को विरोध करते हुए धार्मिक हस्तक्षेप को लाया जा रहा है।
ऐसे में सवाल उठना लाजमी है आखिर हिजाब को लेकर उठा विवाद किस हद तक सही माना जा सकता है। कर्नाटक के हिजाब विवाद को तूल देने की कोई आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि अधिकांश मुस्लिम महिलाएं हिजाब-बुर्के से बाहर आ चुकी हैं। जो मुस्लिम महिलाएं इससे अबतक बाहर नहीं आई, है इसके पीछे उनकी इच्छा या फिर परिवार का दबाव हो सकता है। लेकिन इसका आसानी से पता लगाना मुस्किल है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद
इसलिए इस विवाद को तूल देने से स्टूडेंट्स और बच्चों के मन में गलत भावनाएं आ सकती हैं।आज जिन बच्चों को स्कूल में पढ़ाई पर फोकस करना चाहिए वो पिछले कुछ दिनों में धर्म के नाम पर लड़ाई करते दिख रहें हैं। अगर संविधान की बात करें तो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25, 26, 27 और 28 में देश के हर नागरिक को धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है। वहीं दूसरी ओर कुछ लोग इसे महिलाओं के लिए पाबंदी करार देते हुए इस विरोध कर रहे हैं। उनका मानना है कि हिजाब महिलाओं के आजादी के खिलाफ है।
हिजाब और पढ़ाई
कर्नाटक के उडुपी जूनियर कॉलेज में हिजाब और पढ़ाई में से किसी एक को चुनने के लिए कहा जा रहा है। हमारे देश में शिक्षा का अधिकार एक मौलिक अधिकार है, जो बिना किसी भेदभाव के सभी को पढ़ने और आगे बढ़ने का समान अवसर देता है।
ऐसा हो सकता है कि कुछ महिलाएं हिजाब दवाब में आकर पहन रही हो, लेकिन क्या स्कूल में इसकी पाबंदी इसका हल है। या इस पाबंदी के कारण शायद कई मुस्लिम परिवार अपनी बेटी के स्कूल को बदल देंगें या, उनका स्कूल जाना बंद कर सकते हैं। इस मामले में किसी भी एक नतीजे पर पहुंचना आसान नहीं है।
हिजाब विवाद पर कर्नाटक हाईकोर्ट का स्पष्टीकरण
एक बार फिर, हिजाब विवाद पर कर्नाटक सरकार ने हाई कोर्ट में यह स्पष्ट किया कि हिजाब इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है, और स्कूलों में इसका इस्तेमाल रोकना धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी वाले संविधान के अनुच्छेद 25 का उल्लंघन नहीं। इस तर्क का विरोध करने वाले मुस्लिम लड़कियों के हितैषी नहीं, क्योंकि हिजाब-बुर्का उनकी तरक्की में बाधक ही है। हिजाब की पैरवी करने वाले यह देखने को भी तैयार नहीं कि जैसे-जैसे समाज खुलेपन का अभ्यस्त हो रहा, वैसे-वैसे वह तमाम ऐसी पुरानी परंपराओं को पीछे छोड़ रहा है, जो दकियानूसी हैं और जिनका आज के जीवन में कोई महत्व नहीं। हिंदुओं समेत अन्य समुदायों ने अपने ऐसे तमाम पुराने रीति-रिवाजों से मुक्ति पा ली है।