
ऐ नारी!
तुम क्यूँ चुपचाप सब सहती हो?
ज़ख्मी हो तुम ऊपर से नीचे तक,
पर मुस्कान का पर्दा चढ़ाए फिरती हो!
अपनों पर मरती हो,
इनाम ए बेरुखी पाती हो।
रिश्तों के हाथो भी बेज्जती सहकर,
उनके ही गुणगान तुम गाती हो।
ऐ नारी!
तुम क्यूँ चुपचाप सब सहती हो?
क्यूँ अपने हक में ना कुछ कहती हो?
क्या पाया खुदको खोकर तुमने?
कौन तुम्हारी तलाश में आया?
मोहब्बत ए खंजर सबने मारा तुम्हें,
फिर भी तुम खंजर गुलाब सा सजाती हो।
ऐ नारी!
तुम क्यूँ चुपचाप सब सहती हो?
सबने दुखाया है दिल को तुम्हारे,
उन सब पर प्यार बरसाती हो।
तुम्हारी फटकार के ही लायक हैं जो,
उनकी फटकार भी सुन कर रह जाती हो।
दिल मे दबाए दर्द का सैलाब,
“सब ठीक है” तुम बताती हो।
ऐ नारी!
तुम क्यूँ चुपचाप सब सहती हो?
देखा मैंने तुम्हें टूट कर बिखरते,
सुना मैंने तुम्हें बिन आवाज़ सिसकते!
पीड़ा से तुम इतना तड़प रही हो,
फिर भी इतना बोझ लिए तुम चल रही हो।
दुनिया की खातिर न खुशियाँ मारो नारी,
दुनिया का हर चेहरा जानो प्यारी।
ये दुनिया जीने पर भावनाओं की कब्र बनाती है,
मौत की चादर जब ओढ़ो फिर ये कब्र पर फूल चढ़ाती है।
~ उन्नति शाही