प्रस्तुत कविता में मां के एहसास की गाथा है ।जो दिन-रात अपने बच्चे की उन्नति की कामना करती है। दिन- रात उनके बुलंदी पर पहुॅंचने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करती है। फिर एक दिन ऐसा होता है कि विद्यार्थी जीवन में ही उसका बच्चा पढ़ाई के अतिरिक्त कुछ कार्य करके थोड़े से पैसे अर्जित करता है, और वह उन पैसे को स्वयं पर न खर्च कर पूरे परिवार के लिए उपहार खरीदने में खर्च करता है। जब वे उपहार एक माॅं के सामने आते हैं तब ऐसा प्रतीत होता है जैसे छोटा सा उपहार नहीं बल्कि उस उपहार के रूप में पूरी दुनिया माॅं को मिल गई हो।माॅं उपहारों में खो जाती है और उसके मन में सकारात्मक विचार पुष्पित व पल्लवित होने लगते हैं। मन के इन्हीं भावों को आइए पढ़ते हैं हमारी नई कविता उपहार में।
तुम्हारा वो छोटा सा उपहार,
ऐसे लगा मानो मिल गया पूरा संसार।
उसे देख महसूस हुआ यूॅं,
जैसे, हर मुकाम को पा ली है तू।
उसे जितनी बार हाथ में लेती हूॅं ,
ऐसा लगता है मानो मेरे सामने है तू।
उसे देख मन बसंती बयार सा झूम जाता है,
और मन पता नहीं कहाॅं-कहाॅं घूम आता है।
मन के इस तरह अल्हड़पन से घूमने की अदा,
ऐसे लगता है जैसे बह रही हो फागुन की हवा।
इस हवा में एक खुशबू है जैसे खिली हो कहीं जूही,
यह मादकता मेरे बच्चा भर दी है तू ही।
तेरे इस अपनेपन की अदा पर सब ऐसे हुए कायल,
जैसे श्रेष्ठ सृजन कर दिया हो कोई उच्च कोटि का शायर।
इस छोटी सी शुरुआत को अब रुकने न देना है,
अपने प्रयत्न व हुनर से गंतव्य को शीघ्र ही ले लेना है।
तेरा गंतव्य तक पहुॅंचना ही मेरे जीवन का सपना है,
इससे बड़ा न जीवन में कोई अपना है।
जो भी रिश्ते खास है उन्हें सॅंजो के रखना तू,
मिल जाए तुझको बुलंदी पर न इनको तजना तू।
साधना शाही, वाराणसी