
अबला कहलाने वाली नारी,
सबला बन पल-पल दिखलाई हैं।
देश की अस्मिता और स्वतंत्रता में,
यशस्वी योगदान दे पाई हैं।
उनमें ही एक अद्भुत वीरांगना ,
चंदेली क्षत्राणी हैं।
दुर्गा- अष्टमी के दिन जो जन्मीं,
दुर्गावती कहलाई हैं।
कालिंजर में 5 अक्टूबर 1524 को,
यह दुनिया में आई थीं।
पिता कीर्तिवर्मन के घर में,
चहुॅं खुशियाॅं फैलाई थीं।
दलपत शाह संग यह ब्याही थीं,
जो ना साथ निभाए थे।
अल्पायु में स्वर्ग- सिधारे,
शासन रानी को वो थमाए थे।
राज्य सुरक्षा कीं चतुराई से,
दुश्मन को वो ताड़ी थीं ।
छोटी सी एक सेना लेकर,
पग-पग पर उन्हें पछाड़ी थीं।
घबराकर मुगल थे हमला बोले,
रानी तनिक भी ना घबराई थीं।
रानी की हत्या करने को ,
मुगल सेना एड़ी- चोटी की जोर लगाई थी।
तब रणचंडी रणभूमि में निकलीं,
कर में दो-दो खड्ग लिए।
मार-काट कर निकलीं आगे,
खटवांग धारण थी किए।
वेश बदलकर बन गई सैनिक,
झट गज पर हो गई सवार।
कोई उसके समक्ष न टिकता,
करने लगी वार पर वार।
स्वामी भक्त हाथी भी उनका,
उत्साह से रणभूमि में फिरता था।
अरि मस्तक प्रतिक्षण कट-कटकर,
युद्ध भूमि में गिरता था।
दामिनी सी रानी चमक रही थी,
उस सा ही चमके तलवार।
अरि रक्त पीने की खातिर,
लपक- लपक करे अरि पर वार।
रानी अदम्य साहसी पराक्रमी,
पर सेना अति छोटी थी।
मुगल सेना अति विशाल थी,
ना अब उसको वह रोकी थी।
अपनों ने विश्वासघात किया,
जिससे थी कमजोर पड़ी।
पर थी ना वो हिम्मत हारी,
अंतिम क्षण तक वो थी लड़ी।
बावन युद्ध लड़ी जीवन में
दुश्मन का तीर कान से निकला,
दूजा छेद दिया गर्दन।
रणभूमि से हट जाने का,
महावत ने था किया निवेदन।
रानी स्व- सैनिक से बोलीं,
तुम मेरा संहार करो।
मेरी हत्या झट हो जाए ,
मुझ पर ऐसा वार करो।
रानी के इस आदेश को,
सैनिक ने ठुकराया था।
स्वयं ही खंजर भोंकी सीने में,
और वीरगति को पाया था।
पावन स्थल था वह बरेला,
मंडला, जबलपुर पहाड़ी मध्य स्थित था।
स्थानीय लोगों ने समाधि बनाया,
उनका त्याग, तपस्या ना किसी को विस्मृत था।
साधना शाही, वाराणसी