हालत न ऐसे कर तू ज़ालिम,
कि दिल से तुझको भूला ही दूँ।
यादों का खंडहर, जो है दिल में,
मैं उसको भी हिला ही दूँ।
स्वाभिमान के संग रहो यदि,
इससे अच्छी कोई बात नहीं।
पर अहं के साथ यदि तुम हो,
फिर बचता कोई जज़्बात नहीं।
अहं नाश का मूल है बनता,
घर में सदा तनातनी रहता ।
किसी को ना खुश रहने देता,
गम का बादल सदा घेरे रहता ।
अहंवादी जब तक है चेते,
तब तक रिश्तों को सारे खेदे।
जब विवेक उसका है आता,
हाथ से सब कुछ निकल है जाता।
फिर सिर धूने और पछताए,
किंतु हाथ उसे कुछ ना आए।
दुर्व्यवसनों संग अपने जीए,
जीवन गरल को शौक से पीए।
अंत समय में वे ही साथी,
कोई कभी न भेजे पाती।
वक्त रहे यदि चेत गए तुम,
कुछ बच जाएंँ तेरे साथी।
2- दुल्हन बनकर जब मैंआई,
आंँखों में बड़े सपने थे।
सारे सपने सच हो जाएंँ,
लगे ऐसे भाव पनपने थे।
मेरे पी ने मुझसे कहा था,
मेरे दिल की तुम धड़कन हो।
अश्क कभी ना आंँख में आए,
ना बेचैनी और तड़पन हो।
उनकी आवा़ज जब पड़ी कान में,
मन मेरा गदगद हो आया था।
झोली में बस खुशियांँ होंगी,
सोच के दिल हर्षाया था।
पर यह क्या! सब बदल गया है,
सब एक झूठ छलावा था।
आंँखें सदा ही नम हैं रहती,
वह मन का क्या बहलावा था ।
वादों से विश्वास अब उठ गया,
अंतर्मन का एहसास रूठ गया।
क्या ऐसे ही होते हैं वादे?
जिसके चलते कई साथ
छूट गया।
कोई उसका मूल्य न समझा,
क्या-क्या छोड़ मैं आई हूँ।
बाबुल के घर में थी पराई,
यहांँ भी आके पराई हूंँ।श्र
मन सदा रहा भंँवरजाल में
नागफनी से लोगोँ के संग,
बातें उनकी ऐसी लगतीँ,
साँकर गली में सोच है तंग।
साधना शाही, वाराणसी