आज आधुनिकता की अंधी दौड़ में मनुष्य भावना विहीन हो गया है। वह रिश्तों नातों, भावनाओं को ताक पर रखकर एन केन प्रकारेण सिर्फ़ अर्थ साधन में जुट गया है। उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य समाज में अर्थ की प्राप्ति ही रह गया है, उसे इस बात की कोई विशेष चिंता नहीं है कि अर्थ की प्राप्ति उसे सन्मार्ग पर ही चलकर करना है। उसके अंदर की संवेदनाएंँ कहीं विलुप्त हो गई हैं। अब वह अपनों के साथ खुश न होकर उच्च वर्ग में, भोग- विलास में खुशियों को तलाश रहा है। कुछ ऐसे ही हाव-भाव से ओत-प्रोत है मेरी आज की कविता अपने कल को भूल गए
अपने कल को भूलके हम,
आज बनाने बैठे हैं।
गंगा का पावन जल तजकर,
वाटर पार्क में बैठे हैं।
जड़ों को अपने भूल गए हैं,
पत्तों को चमकाते हैं।
संस्कृति- सभ्यता ताक पर रखकर,
भौड़ा प्रदर्शन कर इठलाते हैं।
श्रम, ईमानदारी गुण हैं ऐसे,
जो जीवन के मूल है।
इससे जीवन होता सुभाषित,
ये आभा बिखेरते फूल हैं।
इन फूलों को मसल के हम,
कैक्टस की खेती करते हैं।
खुशबू बोलो कहांँ से आए,
जब ना फूल को सेते हैं।
दोजख जीवन को है बनाए,
हंँसी- खुशी को हम हैं भुलाए।
ईर्ष्या द्वेष का तंबू ताने,
जीवन को हम खुद हैं गवाए।
मुस्कुराहट कहीं दूर है बसती,
सुबक- सुबक कर वह है रोती।
कहती मुझको साथ में ले लो,
सद्भावों के संग मैं रहती।
प्रेम न जाने कहांँ खो गया,
नफ़रत को है कौन बो गया।
प्रेम से ही घर-घर है लगता,
इसको जाने कौन हर गया।
खुशियों साथ दुख घेर लिया है,
ना थोड़ा वह ढेर लिया है।
अवसादग्रस्त करता जीवन को,
हर्ष से वह मुंँह मोड़ लिया है।
हस्त रेखाओं में ना किस्मत,
श्रम करने से यह है मिलती।
कल्पवृक्ष सम श्रम को जानो,
इससे मिलती सफलता की मोती।
प्राचीन को हम भूल गए हैं,
नहीं नवीन बना हम पाए।
कागज की कश्ती को भूले,
वीडियो गेम हमें उलझाए।
पत्र में कितना प्रेम भरा था,
फोन मोबाइल खा गया उसको।
अब जाने क्या-क्या खाएगा,
अति प्रिय यह अब भी है जिसको।
विश्वास नहीं है अब अपनों पर,
अपने ही अब हुए पराए।
छद्मवेश धारण करके वो,
अपनों की हसरत को जलाए।
अर्थ कमी जिसको है घेरी ,
उसका ना कोई जग में अपना।
अपनों ने उसको दुत्कारा,
टूट गया उसका हर सपना।
इसका ज़िम्मेदार कौन है?
रिश्तो को किसने है मारा।
सुबह-सुबककर दम तोड़ा है,
अपना ही इसका हत्यारा।
भूल गए हम अपने कल को,
भूल गए हम स्व- रिश्तो को।
भूल गए हम संगी-साथी,
भूले प्रेम के हर किश्तों को।
साधना शाही, वाराणसी