बाबुल के दिल का टुकड़ा है बेटी,
खुशियाॅं इतनी ना जाए समेटी।
उसकी किलकारी दुखों को भगाए,
मुरझाए जो जन उनको खिलाए।
चलती बकइयाॅं सब लेते बलइयाॅं,
मुदित हो रहे सब बाबू व भैया।
खुशी मनाए घर व दुआरा,
मंगल गीत गाए चौबारा।
किशोरावस्था में बेटी जब आई,
बाबा के सर चिंता गहराई।
घर -वर दोनों अच्छा मिल जाए,
मानो सत्कर्मों का फल हम पाए।
मनचाहा वर बाबा ने खोजा,
हो गया हल्का सर का बोझा।
दिन व महीना अब झटपट है बीते,
आंखों के आंसू परिजन हैं पीते।
अश्कों को कोई ना दिखाता,
छुप- छुप के है आंसू बहाता।
घड़ी आज है वो भी आई,
जिस दिन बेटी हुई पराई।
बाबुल के घर से विदा वो हो गई,
रिश्तो को सारे यही वो छोड़ गई।
खेल -खिलौने जो थे बचपन के,
देख के माई रोवे सिर धुन के।
मायके की कली को घेरे उदासी,
बन गई आज दूजे घर की दासी।
अब ना कोई उसे देखने वाला,
लल्ली के आंसू पोछने वाला।
आंखें रोएं दिल भी है रोया,
वीरान जिंदगी हो गई गोया।
रोती – सुबकती खुद ही चुप होती,
ना कोई पोछे आंखों के मोती।
बचपन के रिश्ते रखी वो ताख पर,
सारी छवि धूमिल हुई आंख पर।
दिल मायूस जब उसका होता,
अश्क का धारा अविरल बहता।
कोई उसको चुप ना कराता,
व्यंग- बाण हर कोई सुनाता।
माता -पिता ,भाई -बहन को भूला दी,
थे जो अजनबी उन्हें है अपनाती।
वो पर उसको ना अपनाते,
घाव पे घाव हैं देते जाते।
प्यार, तसल्ली ना कोई है देता,
आते- जाते नल्ली है कहता।
हर ताने को वो हॅंस सह जाती,
मम्मी की साया पापा की शहजादी।
तरफदारी उसकी ना कोई करता,
गलती को बढ़ा- चढ़ाकर धरता।
जग ने क्यों यह रीत बनाया?
ज़िगर के टुकड़े को किया पराया।
खून से सींचा पाला- पोसा,
बेगैरत ने है उसको कोसा।
जग कि अब यह रीत बदल दो,
बेटी का कोई तो घर कर दो।
जहाॅं उसे कोई कहे ना पराया,
बन कर रहे अपनों का साया।
जूही चमेली सा हॅंसे खिल-खिलाए,
बेटी के परिजन को चैन तब आए।
साधना शाही, वाराणसी