बेजान तस्वीर थी औरत जब,
तब वो बड़ी ही अच्छी थी।
अब उसमें है जान आ गई,
अब वो माथापच्ची थी।
शूल- बबूल सा लगी चूभने,
वो है बोलना सीख गई।
बाजू पर विश्वास जगा ली,
अब ना लेने भीख गई।
कच्चे धागे सा रिश्ते टूटे,
ना पहले से टिकाऊ हैं।
उसे भी अनुभूति होने लगी है,
अब ना बनी बिकाऊ है।
जि़म्मेदारी अब भी निभाए,
पर ना घुट- घुट जीती है।
सपनों को तंदूर में झोंक के,
गरल ना अब वो पीती है।
अरमानों को अब ना रौंदे,
ना जख्मों को सील सके।
खुशी की चादर को अब उसके,
ना ले भग कोई चील सके।
जुल्फों को अब वो बिखराकर,
खुद पर भी इतराती है।
निर्णय अपना खुद ले लेती,
ना ,ले दूजे से भरमाती है।
सपने , ज़िम्मेदारी को पृथक कर,
अब दोनों हित जीती है।
स्व-सपनों को आग लगाकर,
ना ज़िम्मेदारी पर खीजी है।
प्लेन, रेल अब वो है चलाती,
खोल के पंखों को इतराती।
उनके पर कोई काट सके ना,
नील गगन को छू हर्षाती।
ढोल सा अब कोई पीट सके ना,
पीट दिया तो जीत सके ना।
ईंट दिए तो पत्थर पावो,
अब उस पर कोई लीक लगे ना।
कोर्ट – कचहरी वो कर जाती,
जेल की रोटी वो है खिलाती।
पुलिस को अपने ज़ख्म दिखाकर,
इंसाफ की अब वो गुहार लगाती।
अपने हक को जान गई वो,
अस्तित्व अपना पहचान गई वो।
इसीलिए तो लगी खटकने,
स्व-हित खातिर लगी भटकने।
अब ना पसंद करता है समाज,
आरोप-प्रत्यारोप लगाता है आज।
अब उसके अंदर भी खम है,
अब उसका गम थोड़ा कम है।
मुट्ठी भर कुछ झूठी छलिया,
छल – प्रपंच का डालें डेरा।
सबकी इज्ज़त को वो मिटाएं,
निश-दिन करतीं तेरा- मेरा।
ऐसी अधमों खुद को सुधारो,
मान- प्रतिष्ठा को ना मारो।
आत्म सम्मान को रख लो जिंदा,
स्व – सपनों हित खुद को वारो।
सबका नाम न करो बदनाम,
कार्य करो ऐसा जिस पर हो गुमान।
हक का तुम न करो दुरुपयोग,
हर कर्मों का मिलेगा भोग।
साधना शाही,वाराणसी