होली की धूम देखो आई,
सारे जग में है छाई तरुणाई।
भारत में छाई, गैरभारत में छाई,
फुलेरा दूज से यह मन जाई।
सारे—–

दूज फुलेरा में फूलों की होली,
लड्डू मार, लट्ठमार गली और खोली।
लट्ठ से मार खाएं निकले न बोली,
हुरिआइन मारें हुरियों की टोली।
लड्डू ——

लट्ठमार होली है व्रज में सुहाए,
गोकुलवासी को छड़ीमार होली भाए।
फागुन महीना है शुक्ल पक्ष, द्वादशी,
छड़ी मार होली की धूम मच जाए।
गोकुलवासी —–

ग्वाल- बाल जो भी कान्हा रुप आएं,
गोपियां उन पर छड़ी बरसाएं।
नटखट कान्हा की याद इससे आती,
हंसी- ठिठोली की बौछार कर जाएं।
गोपियां —–

फूलों से नाज़ुक कान्हा हमारे,
लट्ठ से हम भला कैसे मारें?
नाजुक सी छड़ी बदन बरसा रे,
मुरलीधर सबके हैं आंखों के तारे।
लट्ठ से—-

यमुना किनारे एक नंद किला था,
ठाकुरजी की प्रतिमा जिसमें धरा था।
राजभोग का भोग लगता था,
मनभावन पालकी कान्हा का सजता था।
ठाकुरजी —-

दूध ,दही ,मक्खन कान्हा को खिलाएं,
काजू, बादाम संग लस्सी पिलाएं।
छड़ीमार होली की छटा छितराएं ,
गोकुल के जन-जन हिया न समाएं।
काजू, बादाम —–

गोपी को कान्हा को रंग है लगाना,
हंसी – खुशी का है आया ज़माना।
सतरंगी आभा ले गोपियां आईं,
दिलों के तमस को है इससे मिटाना।
हंसी-खुशी——–

नाम छड़ीमार है बरसाता प्यार है,
अद्भुत,अनोखा ,सलोना त्यौहार है।
छड़ीमार होली में जो भी है आता,
सबके दिलों का मैल धुल जाता।

दिलों के मैल जो जन धो न पाए,
होली का उत्सव वो ना ही मनाए।
प्रकृति के रंग में खुद को जो रंग ले,
होली का भेद वही जान पाए।

साधना शाही, वाराणसी

By Sadhana Shahi

A teacher by profession and a hindi poet by heart! Passionate about teaching and expressing through pen and words.

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