यह दिन समाज में पिताओं के प्रयासों और योगदान की याद दिलाता है। पिता दिवस दुनिया के हरेक पिता का अपने बच्चे के लिए किया गया बलिदान, त्याग, कड़ी मेहनत और ज़िम्मेदारी को याद कर ने का दिन है। यह दिवस सभी संतानों को अपने पिता को एक ख़ास सम्मान देने का अवसर देता है। किंतु हम, आप में से ही आज कुछ ऐसी भी संताने हैं जो अति महत्वाकांक्षी तो हैं किंतु कर्मठ नहीं। ऐसे में वो अपनी अति महत्वाकांक्षा की पूर्ति एन, केन ,प्रकारेण अपने पिता से करना चाहती हैं और उस महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए वो अपने पिता के साथ दुर्व्यवहार करने से भी नहीं चूकतीं। तो आज की मेरी कविता ऐसे ही संतान और पिता की एक दारुण गाथा है।
जिसका शीर्षक है-

एक अभागे बाप की
काव्यात्मक कहानी

आओ तुमको बात बताऊॕँ ,
एक नन्हें से लाल की।
माता जिसकी स्वर्ग सिधारी,
पिता पर कृपा थी महाकाल की।

दिन भर अब्बा मेहनत करते,
निज सुत का करते लालन-पालन।
सारी सुख-सुविधाएॕं बेटे को देते,
निज सुख का ना करते आवाहन।

माॅं के जैसा लाड़ लुटाते,
हर विपदा से वो लड़ जाते।
जीवन फू़ँलों की थी सेज,
निज- नंदन सुख से ना किए कुरेज।

निज वास्ते ना इच्छा उनका,
बेटे पर तन- मन, धन छिड़का।
पढ़- लिख बेटा बन गया साहब,
जेब में आ गई अब गर्माहट।

गाॅंव छोड़ वह गया शहर में,
फिर आया पापा से मिलने।
मिलना था बस एक बहाना,
लूट के दौलत था ले जाना।

पिता से बोला बड़े प्यार से,
सुन लो पापा मेरी बात।
खेत बेच कर पैसा दे दो ,
शहर में ले लूॅं एक आवास।

बाप की खुशी का नहीं ठिकाना,
सोचा बेटा करेगा मेरा नाम ।
धन- दौलत क्यों मुझे चाहिए,
मुझको दो रोटी ,एक धोती से काम।

जीवन भर की संचित पूँजी,
झटपट में वो बेच दिए।
पैसे दे दिए वो बेटे को,
बिन मन में कोई खोट लिए।

बेटे की खुशी का नहीं ठिकाना,
कार्य किया था वह मनमाना।
अपने नाम का ले लिया घर,
पिता का ना था उसको डर।

बाट जोह रहा बूढ़ा बाप,
दिन, दुपहरिया, अॕँधेरी रात।
ना कोई आता उसके पास,
उसके पास थी केवल आस।

एक दिन मेरा बेटा आएगा,
शहर मुझे भी ले जाएगा।
बस इसी उम्मीद में था वह
ज़िंदा,
लोग करें उसको शर्मिंदा।

एक दिन बेटा फिर से आया,
दादा बनने की खुशी सुनाया।
खुशी से बूढ़ा हो गया कुप्पा,
ना समझा यह साॅंप है छुप्पा।

बहू पोते को कब मैं देखूॅंगा,
कब पोते की बलैया लूॅंगा,
पके आम का क्या है ठिकाना,
ना जाने कब चू जाऊॕंगा।

बेटा बोला बस कुछ दिन और,
बाबूजी रुकिए इस ठौर,
ऑफिस से सस्पेंड हुआ हूॅं,
नहीं ठिकाना एक भी कौर।

पिता के पास ना एक रुपैया,
फिर भी बोला रुक मेरा भैया,
महाजन से ले लिया उधार,
दे बेटे को पूछा आओगे कहिया।

दिन ,महीना बीता वर्ष,
छीनने लगा था उसका हर्ष,
कब आएॕंगे मेरे बच्चे,
ना उसको आता था अमर्ष।

निश-दिन सोचे एक ही बात,
समय ना होगा बच्चे के पास ,
वरना वो जल्दी से आता,
ले जाता मुझे अपने साथ।

महाजन से जो क़र्ज़ लिया था,
ना वह पैसा दे पाया था,
लेकर दबंगों को वह आया,
बिचारे बाप को पिटवाया था।

जोड़ा हाथ बड़ा गिड़गिड़ाया,
महाजन को तनिक भी दया न आया,
देने की औकात न थी जब,
मुॅंह उठाकर क्यों लेने आया?

बोला बाप रुको जरा भैया,
लाता हूॅं मैं तुरंत रुपैया,
बेचा जाकर अपना ख़ून,
ले लो बाबू पइया – पइया।

फिर भी पैसा ना हुआ पूरा,
चुकता हो पाया था अधूरा,
सोच रहा था बाप बिचारा,
ना दिखता है कोई किनारा।

फिर सोचा था कोई उक्ति ,
पता करूॅं कहाॅं आॕंख है बिकती,
बिक जाए यदि मेरी एक आॕंख,
मिल जाए इस क़र्ज़ से मुक्ति।

तुरंत पहुॅंच गया अस्पताल में,
आॕंख को बेचा है फ़िलहाल में,
ले पैसा वह दौड़कर आया,
महाजन को दे दिया तत्काल में।

बेटे का करता रहा इंतज़ार,
पर ना आया वह खंजर, औजार,
बूढ़ी आंखें अब सोई थीं,
अब तक जो बहू, पोते को जोई थीं।

साधना शाही, वाराणसी

By Sadhana Shahi

A teacher by profession and a hindi poet by heart! Passionate about teaching and expressing through pen and words.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *