कुछ लोग जो फरेबी,
उनसे उब हूं गई
सर के ऊपर तक पानी में,
डूब हूं गई।
अंजुमन भी अब,
वीराने सा लगता है।
कह- कहा भी कांटा ,
चुभाने सा लगता है।
शोरिश भरा अंजुमन,
एकाकी सा है लगे।
मखमल से कोमल बिस्तर,
पर रात भर जगे।
खामोश जो गली है,
वो तकरीर सी लगे।
अपना ही चेहरा मुझको,
बेजान तस्वीर सी लगे।
कल तक बड़े थे कहते ,
सुकूत कर ले तू।
आज वो ही हैं कहते ,
खुद को मज़बूत कर ले तू।
तिलांजलि दे फ़िक्र को,
लज्जत से जी रही।
मानूस ना है कोई,
दुनिया रही ,वही।
हाथों की तकिया लेके,
खल्वत में जा पड़े थे।
मार्कीन की सी जिंदगी में,
कुंदन बड़े जड़े थे।
इठलाकर इसका चमकना,
मुझको न रास आया।
अरमान जब थे जिंदा,
कोई न पास आया।
अंजुमन- सभा
शोरिश – कोलाहल
तकरीर – बोलना वक्ता भाषण
सूकूत – चुप्पी
लज्जत – आनंद
मानूस- परिचित
खल्वत- एकांत
साधना शाही,वाराणसी