
जब मन है मायूस हो जाता,
हमको बड़ा हॅंसाते बच्चे।
आंँखें जब हो जातीं खाली,
इनमें सपने दिखाते बच्चे।
घर जब वीराना है लगता,
घर में रौनक लाते बच्चे।
रंग सभी जब फीके लगते ,
चमक ,दमक ,दिखलाते बच्चे।
दिल जब दुखों में है खो जाता,
इसकी गहराई में बस जाते बच्चे।
घर जब उजड़ा -उजड़ा लगता,
नन्हे हाथों से इसे सजाते बच्चे।
जब सब सखियाॅं छूट हैं जातीं,
तब सखियाॅं बन जाते बच्चे।
दिन भर उछल- कूद मचाकर,
मन को हैं खिझियाते बच्चे।
दूर रहे हैं जब ये घर से,
मन को बड़ा सताते बच्चे।
हर कामों में हाथ बटाकर,
सलाहकार बन जाते बच्चे।
आधुनिक काम जो हमें न आते,
उसमें दक्ष हो जाते बच्चे।
जीने की जब ख़त्म हो इच्छा,
तब इच्छा को जगाते बच्चे।
मेहनत का मोल करे ना कोई,
इसे समझ हैं जाते बच्चे।
हर कोई जब ढूढ़े खामी,
खूबियांँ हमें बताते बच्चे।
मांँ जब यंत्रवत हो जाती है,
फुर्सत के दो पल लाते बच्चे।
हमारा फ़िक्र करे ना कोई,
तब फ़िक्र में डूब हैं जाते बच्चे।
घर में सन्नाटा जब पसरे,
कहकहों से दूर भगाते बच्चे।
मनहूसियत जब घर में छाए,
ख़ूबसूरती वहाँ ले आते बच्चे,
जब सब कुछ बेजान है लगता,
सबमें जान हैं लाते बच्चे।
कभी एक घर के थे रौनक ,
दो घर में बॅंट जाते बच्चे।
दोनों घर-घर को जोड़- जोड़ कर ,
एक ही घर सा बनाते बच्चे।
अकिंचन जब मात-पिता हों,
तब पारस बन जाते बच्चे।
दिल के चमन में जब पतझड़ हो,
वहाॅं मधुमास ले आते बच्चे।
नफ़रत की दुर्गंध जब फैले,
प्यार के पुष्प महकाते बच्चे।
साधना शाही, वाराणसी