अभी युवती नहीं वह बाला है,
कष्टों को ने जिसको पाला है।
कष्टों ने उसे झकझोर दिया,
जाने किन-किन राहों पर मोड़ दिया।
वह कली बनी पर खिल न सकी,
मुरझा गई खिलने से पहले।
वक्त ने उसको मसल दिया,
बहुत सिखा गई मिटने से पहले।
वह सिसक- सिसक कर रोती है,
पर चेहरे पर मुस्कान लिए।
वह यंत्र सा जीवन जीती है,
कंधों पर सबका मान लिए।
जब बेचैनी उसे तड़पाती है,
स्व- माँ की याद हो आती है।
आंँसू से रुँधा गला होता,
पर आंँखों तक ना आती है।
उसे धैर्य न देता है कोई,
खुद को ही धैर्य वह देती है।
जब थककर वह है चूर हुई,
खुद थपकी दे वह सोती है।
जब लाड़ न देता है कोई ,
पापा की कमी बड़ी खलती है।
आंँखों में तिनका पड़ गया है,
यह कहकर आंँखें मलती है।
देवदार की छांँव से पापा हैं ,
और कल्प वृक्ष सी मैया हैं।
पर आज खड़ी नाज़ुक बिटिया,
तपते सूरज की छैंया है।
थपकी दे खुद को सुलाती है,
और खाए बिना सो जाती है।
हांँ, कोई देखने वाला ना,
खुद रोती और मुस्काती है
तन- मन दोनों में छाले पड़े,
पर कोई देखने वाला नहीं ।
खुद गिरती और सँभलती है,
ना कोई भी रखवाला है।
वह अश्क नदीश में डूब गई,
खारे पानी से ऊब गई।
है भीमताल की उसे तलाश,
चिल्का झील से वह रूठ गई।
चलते-चलते पग में छाले,
पड़कर हैं कितने फूट गए।
है कोई देखने वाला नहीं,
सब के सब उससे रूठ गए।
जब झूठा स्नेह दिखाने को,
कोई छलिया आ जाता है।
विश्वास है उस पर कर जाती,
वह लूट उसे चला जाता है।
साधना शाही, वाराणसी