सुबह-सुबह महेश जी अपने कमरे में बड़े ही चिंतित मुद्रा में बैठे हुए थे तभी उनके मित्र, सहपाठी मोहन जी का आना हुआ। मोहन जी कमरे में प्रवेश करते ही पूछे, क्या बात है महेश बड़े उदास बैठे हुए हो, पत्नी से लड़ाई हो गई क्या? महेश जी चिंता जताते हुए बोले, नहीं यार, कोई लड़ाई लड़ाई नहीं हुई है बस यही सोच रहा हूंँ इस बार गर्मी नहीं पड़ेगी क्या ?
महेश जी की बात को काटते हुए मोहन जी बोले, क्या बात कर रहे हो यार गर्मी पड़ तो रही है। अब कितनी गर्मी पड़ेगी! क्या तुम भारतीय गांँवों और शहरों को डेथ वैली केलिफोर्निया बना देना चाहते हो क्या?
तभी महेश जी ने कहा, अरे यार! इस गर्मी से क्या होने वाला है! पिछले साल पत्नी से वायदा किया था कि अगले साल गर्मी बीतते- बीतते कहीं न कहीं मैं ज़मीन ले लूंँगा लेकिन अगर गर्मी का यही हालत रहा तो कहांँ से जमीन, कहांँ से जायदात?
तभी पुनः उनकी बात को काटते हुए मोहन जी बोले, मेरी भी पत्नी से एक हफ़्ते से लड़ाई चल रही है। पत्नी किसी का हार देखकर आई है, उसे वैसा ही हार चाहिए और इस महंँगाई को क्या कहा जाए, इस महंँगाई में सैलरी तो खाने-पीने और अपनी पार्टी वगैरह के लिए ही कम पड़ जाती है अब गहने कहांँ से बनवाऊँ।
अब महेश जी सिर्फ़ इसी इंतज़ार में थे कि कब गर्मी अपने चरम पर होगी और सरकार की तरफ़ से जनता को गर्मी से राहत दिलाने के लिए मोटा बिल पास होगा। क्योंकि दुबला- पतला बिल तो शराब- कबाब में ही ख़त्म हो जाता है।
इसी तरह दोनों मित्र गर्मी न पड़ने का अफ़सोस जताते हुए बातचीत करते हुए चाय पीये और अपने-अपने घर को चले गए।
पन्द्रह दिन बीता महेश जी अपने ऑफ़िस में बैठे काम कर रहे थे तभी उनकी नज़र ऑफ़िस में लगी टीवी पर पड़ी, टीवी पर नज़र क्या पड़ी वो तो ख़ुशी से उछल ही पड़े। उन्होंने देखा गर्मी पड़ने से कई मौतें। इस ख़बर को सुनते ही महेश को तो मानो मानो मुंँह मांँगी मुराद मिल गई हो।
3 दिन बीता सरकार ने 10 लाख का बिल पास किया कि सभी छोटे विद्यालयों, महाविद्यालय, कार्यालयों, अस्पतालों में जहांँ कूलर और पंखे की व्यवस्था सुचारू रूप से नहीं है वहांँ कलर और पंखे की व्यवस्था कराया जाए और उनके 40% बिजली के बिल को माफ़ कर दिया जाए। बस इसी के तो इंतज़ार में थे महेश जी। सरकार ने बिल पास किया उन्होंने विद्यालयों, महाविद्यालयों, कार्यालयों , अस्पतालों में पंखे और कलर तो लगवाया ही साथ ही साथ अपनी तिज़ोरी भी भर ली।
और अपने घर से करीब 8 किलोमीटर दूर खुले मैदान में पांँच बिस्सा ज़मीन ख़रीदकर पत्नी और पति के बीच प्रेम में भी बढ़ोत्तरी कर लिए। इस प्रकार गर्मी पड़ने से जहांँ जनता आकुल- व्याकुल हुई वहीं महेश जी की तिज़ोरी भर गई।
सीख- आज हम महंँगाई के लिए सरकार को कोस रहे हैं, अशिक्षा, बेरोजगारी का रोना रो रहे हैं किंतु यदि हम भारतीय जनता सरकार के द्वारा दिए गए साधनों का ईमानदारी से प्रयोग करें, धन का अपव्यय न करें तो देश से ग़रीबी,अशिक्षा बेरोज़गारी जैसी समस्या को दूर होने में बहुत ज़्यादा वक्त नहीं लगेगा।
दिनांक- 12,0 3, 2024
दिवस- मंगलवार
विषय-परिंदा( कविता)
हाय मेरे मन का परिंदा,
क्यों मुझसे है रूठा।
मैंने उसको मनाया,
उसने गहा है कुंठा।
हाय मेरे मन का परिंदा,
क्यों मुझसे है रूठा।
इसे मैं रोकना चाहूंँ,
सदा ना टोकना चाहूंँ।
यह पागल है परिंदा,
रहेगा जहां है चंदा।
हाय मेरे मन का परिंदा,
क्यों मुझसे है रूठा।
चार पैसे क्या आए ,
परिंदा हुआ आवारा।
चक्षु अश्कों से भरकर ,
ना हुआ कभी शर्मिंदा।
हाय मेरे मन का परिंदा,
क्यों मुझसे है रूठा।
हे प्रभु! करूँ मैं विनती,
त्रुटि ना करना गिनती।
ना उसने दुनिया देखा,
ना दुनिया की है चिंता।
हाय मेरे मन का परिंदा,
क्यों मुझसे है रूठा।
हाल चाहे जैसे हों
रोके से रुके नहीं ये।
पर चाहे कट जाएँ,
बिन पंखों के उड़ता।
साधना शाही, वाराणसी